डा. महाराज कृष्ण
के बहाने
मेरा ही नहीं,
स्थापित लेखकों, पत्रकारों एवं कवियों के प्रेरणा-स्रोत रहे अंबाला निवासी, कहानी
लेखन महाविद्यालय के संस्थापक-निदेशक, शुभ तारिका के संस्थापक-संपादक डा. महाराज
कृष्ण जैन का जन्म दिनांक 31मई 1938 को तथा निधन 5 जून 2001को हुआ। मैं 1975-76
में कहानी लेखन महाविद्यालय से जुड़ा था। उनके निधन के कई महीने बाद तक मुझे नहीं
मालूम हुआ कि उनका स्वर्गवास हो गया है। अचानक एक दिन मैंने फोन किया तो उनकी
भतीजी ने फोन पर यह सूचना दी कि डा. साहब का स्वर्गवास हो गया है। मैंने तो ऐसा
सोचा भी नहीं था कि इतनी जल्दी उनका साथ छूट जाएगा। 5 जून 2002 को उनकी पहली पुण्य तिथि के अवसर पर
असम कृष्टि केन्द्र, धानखेती, शिलांग में एक बच्चों के लिए कार्यक्रम रखा था। उसके
बाद लेखक शिविर के शिलांग में आयोजन के लिए एक पोस्टकार्ड उर्मि दीदी को लिखा। उस
वर्ष 23 से 25 नवम्बर 2002 तक शिलांग में 12वें लेखक शिविर का सफल आयोजन किया गया।
डा. साहब हर
वर्ष लेखक शिविर का आयोजन करते थे। यह आयोजन सिर्फ कहानी लेखन महाविद्यालय से
संबद्ध लेखकों के लिए होता था। उनके बिछुड़ने के बाद ऐसा लगने लगा कि शिविर की यह
परंपरा अब समाप्त हो जाएगी। पारिवारिक व्यस्तता और सरकारी कामकाज के दायित्व के
निर्वाह करने के कारण नवम्बर 2003 (शिविर, अंबाला छावनी) के बाद शिविरों में जाना
मेरे लिए संभव नहीं हो पाया। चार वर्षों के बाद मई 2008 में शिलांग में शिविर का
आयोजन किया गया। इस शिविर के बाद प्रति वर्ष मई-जून महीने में मेघालय की राजधानी
शिलांग में लेखक शिविर का आयोजन डा. महाराज कृष्ण जैन की स्मृति में होने लगा। उस
वर्ष तक मैंने यह सोचा था कि हम सभी कहानी लेखन महाविद्यालय के सदस्य ही इस शिविर
में पहले की तरह भाग लेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इस शिविर में आने के लिए वैसे लेखक
भी तैयार होने लगे जो महाविद्यालय के सदस्य नहीं हैं। मैंने सोचा डा. साहब के
बहाने ही लोगों को इस शिविर में आमंत्रित किया जाए। इस शिविर को राष्ट्रीय हिंदी
विकास सम्मेलन का नाम दिया गया और डा. साहब के बहाने पूर्वोत्तर के विभिन्न
राज्यों में हिंदी के विकास के लिए पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी द्वारा कार्यक्रमों का
आयोजन होने लगा।
हिंदी के
क्षेत्र में कार्य करने वाले भारतीय नागरिकों को उनके योगदान के आधार पर डा.
महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान दिये जाने की परंपरा चली तो भारत के विभिन्न भागों
की संस्थाएं हमारे सहयोग के लिए सामने आयी। ऐसा लगा जैसे डा. जैन सबसे हमारे सहयोग
के लिए कह रहें हों। और आज कई संस्थाएं इस आयोजन के लिए अपना आर्थिक सहयोग देकर
इसे सफल बना रही हैं। साथ ही इसके आयोजन में इस समारोह में शामिल होने वाले लेखकों
का आर्थिक सहयोग रहता है और स्थानीय लोगों का भी सहयोग मिलता है। सभी के सहयोग को
देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि डा. जैन हमारे साथ सदैव रहते हैं और लोगों को
प्रेरित करते रहते हैं इस समारोह में आने के लिए और सहयोग करने के लिए। लेकिन
अफ़सोस यही होता है कि डा. जैन के बहाने दूसरे लेखक इस सम्मेलन से जुड़ते जा रहे
हैं परंतु कहानी लेखन महाविद्यालय के पुराने और नये सदस्यों का शामिल होना नहीं हो
रहा है।
आज हमारे बीच
डा. महाराज कृष्ण जैन नहीं हैं, हम ऐसा नहीं कह सकते हैं और न ऐसा अनुभव ही करते
हैं क्योंकि आज हमारे बीच उर्मि दीदी हैं, पहले भी थीं और आगे भी रहेंगी, उनका
स्नेह, सहयोग और सान्निध्य हमें कभी भी अकेला नहीं होने देगा। हम हर पल उनकी
उपस्थिति का अहसास करते हैं और करते रहेंगे। उर्मि दीदी का डा. जैन के लिए किया
गया तप हमें इस बात का अहसास कराता रहेगा कि इस संसार में कोई अकेला नहीं है। सभी
को एक मित्र, एक साथी या एक दोस्त मिल ही जाता है जिससे उसका जीवन महक उठता है।
डा. जैन पहले अपने आपको अकेला महसूस करते होंगे किंतु उर्मि दीदी जैसी जीवन साथी
को पाकर वे धन्य हो गये। आज उनके नाम का दीपक पूरे देश में उर्मि दीदी जलाकर यह
अहसास करा रहीं हैं कि डा. साहब शारीरिक रूप से अक्षम होते हुए भी कितने सक्षम थे
समाज को जोड़ने के लिए, साहित्य को रचने के लिए, लोगों में स्नेह-भाव भरने के लिए,
परस्पर सहयोग करने के लिए।
बीस वर्ष
पूर्व पूर्वोत्तर भारत में हिंदी की जो स्थिति थी, वह आज बिल्कुल नहीं है।
पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में अपनी-अपनी बोलियाँ और मातृभाषाएँ हैं,
उनके बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी ही तेजी से अपना विकास कर रही है। इन
राज्यों में हिंदी का अध्यापन-कार्य कम होता है परंतु हिंदी का विकास तेजी से हो
रहा है और वह दिन दूर नहीं जब यहाँ का प्रत्येक निवासी हिंदी में ही बात करेगा। नई
पीढ़ी को हिंदी से अत्यंत लगाव देखने को मिलता है। पूर्वोत्तर से बाहर जाने पर
निश्चय ही हिंदी को अपनाना पड़ता है। जो हिंदी नहीं जानते हैं वे हिंदी सीखने की
कोशिश अवश्य कर रहे हैं। हिंदी के प्रचार के लिए पूर्वोत्तर की स्वयंसेवी संस्थाएं
अपने दायित्व का निर्वाह भलीभांति कर रही हैं। उनके प्रयास से भी लोग हिंदी को खूब
अपना रहे हैं। और सच बात तो यह है कि आज हिंदी लोगों की जरुरत की भाषा बन चुकी है।
संगीत सीखने के लिए, प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिए या देश भ्रमण के लिए
हिंदी सीखना अब आवश्यक हो गया है। परंतु मैं समझता हूँ कि हिंदी सीखने से पहले
नागरी लिपि सीखना आवश्यक है। नागरी लिपि को सीखकर ही हिंदी सीखना आसान होगा।
इसीलिए हमलोग चाहते हैं कि पूर्वोत्तर भारत में नागरी लिपि का खूब प्रचार किया
जाए। नागरी लिपि के प्रचार से लोग अपने आप हिंदी सीख जाएंगे।
पूर्वोत्तर
भारत में ऐसी बहुत सी भाषाएँ और बोलियाँ हैं जिनकी अपनी कोई लिपि नहीं हैं। उन
बोलियों और भाषाओं को यदि नागरी लिपि में लिखा जाए तो हिंदी का प्रचार अपने आप
होने लगेगा। आवश्यकता है लिपि विहीन बोलियों और भाषाओं को नागरी लिपि में भी लिखे
जाने के लिए स्थानीय लोगों को तैयार किये जाने की। पूर्वोत्तर भारत में नागरी लिपि
के प्रचार और प्रसार की व्यापक संभावनाएँ हैं। इस ओर काफी ध्यान देने की आवश्यकता
है। नागरी लिपि के प्रचार के लिए हम नगालैण्ड और सिक्किम में संगोष्ठियों का आयोजन
कर चुके हैं और भविष्य में भी करना चाहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम आपने
आपको इस कार्य को करने के लिए तैयार करें।
किसी भी कार्य
को करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कठिन परिस्थिति में और चुनौती भरा
काम करना और भी कठिन हो जाता है। सहयोग और समर्थन मिलना तो दूर की बात है, काम को
रोकने वाले या अड़चन पैदा करने वाले भी बहुत मिल जाते हैं। न स्वयं करते हैं और न
दूसरे को करने देते हैं। हमारे साथ भी ऐसा भी होता है। रुकावटें पैदा करने का
स्वभाव कुछ लोगों में देखा जाता है। हम उनके साथ कैसे तालमेल बैठाये, यह समझना
हमारे लिए मुश्किल होता है। काम तो करना है, हिंदी के प्रचार के दायित्व को निभाना
है, हिंदी के प्रचार कार्य को अपने जीवन का पर्याय मानने के बाद हम इस कार्य को
आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हैं। विरोधियों से अधिक हमारे मित्र हैं जिनके सहयोग
और समर्थन से हम आह्लादित हैं। मिजोरम की कठिन यात्रा हो या सिक्किम की, नागालैण्ड
की भयग्रस्त यात्रा हो या आसाम की आसान यात्रा सभी जगह हमारे साथ देने वाले हैं और
हम अपने लक्ष्य में सफल होते जा रहे हैं। आपका भी सहयोग और समर्थन हमें मिलेगा तो
हम अपने पथ से कभी विचलित नहीं होंगे।
पूर्वोत्तर
भारत में हिंदी भाषा और नागरी लिपि का प्रचार करने में यदि हम सफल हुए तो हम समझ
सकते हैं कि यह डा. महाराज कृष्ण जैन के बहाने हुआ और यही उनके प्रति सच्ची
श्रद्धांजलि भी होगी।