Wednesday, May 18, 2016

अखिल भारतीय लेखक मिलन शिविर का औचित्य

मेरी भी सुनो ....
अखिल भारतीय लेखक मिलन शिविर का औचित्य
1961 ई. में स्थापित कहानी लेखन महाविद्यालय की स्थापना डा. महाराज कृष्ण जैन द्वारा अंबाला छावनी (हरियाणा) में की गयी। मैं अपने लेखक मित्र श्री मदन मोहन श्रीवास्तव की सलाह पर 1976 में इस संस्था से जुड़ा था। श्री श्रीवास्तव जी उन दिनों सीमा सुरक्षा बल में कार्यरत थे। उनके चाचा जी श्री भोला नाथ भावुक एक लोकप्रिय कवि थे और उनका बेटा मेरे साथ ही प्रधान हिंदी का छात्र था। मैं कभी-कभी उनके घर चला जाता था। वहीं श्री श्रीवास्तव जी से मुलाकात हुई थी। अचानक कहानी लेखन महाविद्यालय की चर्चा होने लगी। कहानी लेखन महाविद्याल को मैं 1972 से ही साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, धर्मयुग आदि पत्रिकाओं के माध्यम से जानता था। श्रीवास्तव जी की सलाह पर मैं कहानी लेखन महाविद्यालय से जुड़ गया था। डा. जैन का देहावसान 5 जून 2001 को हुआ और उस वर्ष शिविर का आयोजन नहीं हो पाया। फिर इसके बाद का विवरण मैंने पूर्वोत्तर वार्ता के पिछले अंक में लिखा है।  
आज के इस अंक में मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहता हूं कि .यह लेखक मिलन शिविर है, जिसमें हम अपनी कुछ कहते हैं और दूसरे की बहुत कुछ सुनते हैं। जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि इसके शिलांग में आयोजन का एक मात्र उद्देश्य यही था कि डा जैन जिस शिविर के आयोजन की शुरुआत की थी वह चलता रहे और कहानी लेखन महाविद्यालय के सदस्य इसमें शामिल होते रहें। लेकिन महाविद्याल के सदस्यों के अतिरिक्त भारी संख्या में वैसे लोग भी इस शिविर से जुड़ने लगो तो डा. जैन से प्रभावित हुए। तब इस शिविर का नाम बदलकर हमने राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन रख दिया। कोई कार्य बिना अर्थ के नहीं सम्पन्न नहीं हो सकता । अतः पहले की तरह परस्पर सहयोग पर यह सम्मेलन होने लगा। आरंभिक वर्षों में सरकारी सहयोग मिला, बाद में हमारे मित्रों ने इसे साहित्यिक समारोह घोषित करवा दिया और सरकारी सहयोग रोकवा दिया। लेकिन इससे कुछ अंतर नहीं हुआ। यह शिविर हर साल विधिवत होता रहा। लगभग हर साल ही कुछ न कुछ रुकावटें लोग खड़ी करते हैं। इसे रोकने का खूब प्रयास किया जाता है। शिलांग जैसे हिंदीतर भाषी प्रदेश में इतने बड़े कार्यक्रम का होना सभी कोई आश्चर्य करता है।   
इस शिविर का आयोजन मात्र डा महाराज कृष्ण जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किया जाता है। डा. जैन इसकी शुरुआत 1992 में की थी।  सन् 2002 से शिलांग में किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि इसमें जो लेखक, कवि, पत्रकार या हिंदी प्रेमी शामिल होते हैं उनका आर्थिक सहयोग रहता है और उनके बल पर ही हम इस शिविर को सफल बना पाते हैं। इस शिविर में शामिल होने से कई नवोदित लेखकों को काफी प्रोत्साहन मिला है। लिखने की प्रेरणा मिली है। जो लेखन छोड़ देने के बाद इस शिविर में शामिल हुए हैं , वे फिर से लिखना शुरू कर दिये। लिखने के लिए वातावरण का होना बहुत आवश्यक होता है और वह वातावरण इस शिविर में आने के बाद नवोदित लेखकों को अवश्य मिलता है।
रही सम्मान की बात तो इस शिविर का मुख्य उद्देश्य लेखकों को सम्मानित करना नहीं था, परंतु जिस स्थान पर इस शिविर का आयोजन होता था वहाँ के एक स्थानीय सदस्य लेखक को कहानी लेखन महाविद्यालय द्वारा सम्मानित किया जाता था। परंतु पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी के उद्देश्य में यह निहित है कि हिंदी के क्षेत्र में कार्य करने वाले वरिष्ठ नागरिकों को सम्मानित किया जाएगा। उसी उद्देश्य की पूर्ति इस शिविर में की जाती है। यह सम्मान इस शिविर का उद्देश्य नहीं है। लेखकों में लेखन की प्रवृत्ति को जागरुक करना और परस्पर मेल-मिलाप ही इस शिविर का उद्देश्य माना जाना चाहिए। पूर्वोत्तर के कई लेखक इस शिविर से जुड़ कर लेखन  के क्षेत्र में दक्षता हासिल की है और इसका हमें गर्व है। इतर पूर्वोत्तर भारत के जो लेखक इस शिविर में आते हैं वे यहाँ की रीति-रिवाज, संस्कृति से अवगत हो कर अपने लेखन का विषय बनाते हैं, जो पहले नहीं होता था।
प्रतिवर्ष 80-90 लेखकों का इस शिविर में शामिल होना इस शिविर की सार्थकता को दर्शाता है।  इस शिविर के आयोजन में जिन विरोधी परिस्थितियों से हमें जुझना पडता है उसकी चर्चा मैं यहाँ आवश्यक नहीं समझता लेकिन इतना अवश्य ही निवेदन करने का मन कर रहा है कि जिस गली में आपको जाना नहीं हो उस गली का पता पूछ कर आप अपना और पता बताने वाले का समय नष्ट न करे। कोई भी कार्य बिना अर्थ का नहीं होता है। आज के लेखक ही हिंदी का प्रचारक भी है। वह प्रचार भी करता है, अपना सहयोग देकर अपनी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाता भी है। लेखन से कितना आय होता है, कितना पारिश्रमिक मिलता है यह लेखक ही जानता है। यह बात स्थापित लेखकों की भले न हो परंतु कितने प्रतिशत लेखक हैं जिनके साथ हम न्याय कर पाते हैं। क्या उनकी इच्छा नहीं होती कि उन्हें भी कोई सम्मान मिले, वे भी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मंचों पर अपनी कविताओं का पाठ करें, भले ही उनकी कविताएं स्तरीय न हो तब भी इच्छा तो होती है न। हम इसी इच्छा की पूर्ति के लिए सभी को मंच देते हैं और सभी को मंच संचालन और उदघोषणा करने का अवसर देते हैं। वर्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध चेरापूँजी और बादलों के घर मेघालय को देखने की इच्छा को पूरी करने के लिए इस शिविर का आयोजन शिलांग में करते हैं। यदि आप कहें कि इसके लिए सभी कोई सहयोग करते हैं तो गलत नहीं है। और बिना आर्थिक सहयोग के  यदि किया जाए तो पहली बात कि इतना व्यय आयेगा कहाँ से और दूसरी बात कि हजारों लोग आना चाहेंगे उनकी व्यवस्था कैसी हो पाएगी। हम ऐसा करने में पूरी तरह असमर्थ हैं।
अतः सभी से कुछ सहयोग लेना आवश्यक हो जाता है, इसके अतिरिक्त हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता। उनके सहयोग से ही हम सफल हो पाते हैं। अन्यथा यह हो ही नहीं सकता है। लेखकों के सहयोग से यह शिविर उनका अपना बन जाता है। वे प्रत्यक्ष रूप से इसमें शामिल हो जाते हैं। उनका अधिकार बन जाता है इस शिविर में शामिल होने के लिए, इसमें शामिल होकर अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए। यही कारण है कि हमारे प्रतिभागी ही मुख्य अतिथि, विशेष अतिथि, मंच संचालक, कविता पढ़ने वाले, नृत्य और गायन करने वाले होते हैं। साथ ही व्यवस्था में भी अपना हाथ बँटाते हैं। एक दूसरे का ध्यान रखते हैं। परस्पर सहयोग से यह शिविर सफल होता है और प्रतिभागियों को जो आनन्द मिलता है उसका आभास मुझे भी होता है तब मुझे आत्म-संतुष्टि मिलती है। आपका सहयोग और समर्थन ही इस शिविर की सफलता और सार्थकता है।
जय हिंद, जय हिंदी, जय नागरी, खूबलेई, मिथेला।
(डा अकेलाभाइ)            



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